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Full Version: Music Director Daan Singh,passes Away
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sangeet ka safar

NEW DELHI: Hindi film music director Daan Singh, whose melancholic melody, Woh tere pyaar ka gham, provided soul and succour to a generation of broken-hearted lovers, died after a liver ailment in Jaipur on Saturday night. He was 78.

The song, embellished with an elegant piano flourish and a slick saxophone riff, was written by Anand Bakshi and sung by Mukesh for the film, My Love (1970). "It was one of the finest numbers that my father sung. It was also among his finest renditions," says singer Nitin Mukesh.

Another track from the same Shashi Kapoor-Sharmila Tagore flop, Zikra hota hai jab qayamat ka tere jalwon ki baat hoti hai (again sung by Mukesh), continues to be a late night radio favourite. In an interview to The Times of India earlier this year, Singh recalled how fellow composer Madan Mohan loved the way he had used raag Bhairavi in the song. "Arre raag Bhairavi to hum bhi istemal karte hain. Tune ye kaun sa sur mila diya? (We use raag Bhairavi too. How did you come up with such a variation)?," he is said to have commented.

His compositions for the unreleased Bhul Na Jana (1973) too were much appreciated. Two of its tracks, Pukaro mera naam lekar pukaro and Gham-e-dil kis se kahoon, both sung by his favourite singer Mukesh, continue to draw rave remarks on the internet.

Despite crafting such gems, Singh was never swamped with offers. Perhaps it was a combination of bad luck and his inability to market himself that proved to be the composer's undoing. "Na poochiye apni daastan (Don't ask me about my life)," is all he said on his failure to make it big. As Nitin Mukesh puts it, "He was an extremely talented and creative musician who perhaps never got his due."

In recent years, Daan Singh provided the score for two more movies: director Jagmohan Mundra's Bawandar (2000). Unfortunately, the film's songs were not picturised; they could be heard only on the album. And earlier this year, after a long gap, he composed a song, Ugmara suraj (Rise o sun), for the Rajasthani film, Bhobhar (Live ash). "I was happy to discover that my music had stayed with me all these years," said Singh, whose father was a teacher in the school of arts and an occasional khayal singer.

As a child, Daan Singh could reproduce any tune note for note. "Anything I heard was imprinted on my mind," he said. His talent for music was first discovered at a marriage function in Lucknow. When a relative told him that his father had lost in an impromptu khayal gayiki competition, the eight-year-old rushed to the spot. "I shouted that I wanted to compete. Everyone laughed. But I when sang Teri baton se mujhko yeh zahir hua, ishq tera raha koi kangal se (It's obvious from what you say, you are in love with a beggar), everyone loved it. I became a hero," he remembered.

The music director spent most of his professional career working for All India Radio, Jaipur. Few know that as a teenager he had spent several weeks with renowned composer Khemchand Prakash (of Aayega aane wala fame, film: Mahal) in Bombay. "I had travelled with a friend of mine, Y N Joshi, the screenplay writer of Vidya (1948), to Bombay. He had introduced me to him. I adopted Prakashji as my guru and used to stay at his Shivaji Park home. Another celebrated music director Anil Biswas lived a block away. Many years later, Joshi told me that Prakashji had said, "Daana se keh dena uska Bambai mein naam hoga (Tell Daana, he will be famous one day," he said in the same interview to TOI.

He also recalled what Mukesh had said during the recording of the number, Woh tere pyaar ka gham. "People will remember the song long after we are gone." Considering the track's popularity over 40 years after it was composed, he was pretty prophetic.
♦ रामकुमार सिंह

जिएक ही सिचुएशन के लिए फिल्‍म ‘भोभर’ में तीन गाने लिखे गये थे और मेरे निर्देशक गजेंद्र एस श्रोत्रिय की तीनों पर ही सहम‍ति थी। पूरी फिल्‍म में तीन या चार गाने रखने थे लेकिन फिर लगा एक गाना ही रखेंगे। सिचुएशन ऐसी थी कि हीराइन की दुविधा है कि वह घर छोड़ चुके पति से मिलने जाना चाहती है। बेटे का दबाव है कि कहीं नहीं जाए और फिल्‍म का वर्किंग टाइटल “कील” था। इसके लिए गाना लिख दिया था जिसे गजेंद्र ने ओके कर क‍र दिया था, लेकिन जब टाइटल ‘भोभर’ हो गया तो मैंने एक और गाना लिखा और भेजा तो गजेंद्र ने कहा कि यह वाला सबसे परफेक्‍ट है। इससे पहले के दो गाने जयपुर के ही दो संगीतकार मित्रों को दे चुके थे कि वे इसे धुन दें। वे दोस्‍त हैं इसलिए उनके नाम बताना जरूरी नहीं, लेकिन वे या तो टालते रहे या उनके पास संगीत देने की समय निकालने तक की फुरसत नहीं थी।

फिर एक शाम सीनियर पत्रकार मित्र ईशमधु तलवार के साथ बैठे थे। वे दान सिंह के जबरदस्‍त फैन हैं। हों भी क्‍यों नहीं, जिस संगीतकार को ज्‍यादातर फिल्‍म वाले गुमनाम और अज्ञात मान चुके थे, उसे एक बार फिर उन्‍होंने सार्वजनिक किया था, जब वे नवभारत टाइम्‍स में थे। दान सिंह मूलत: राजस्‍थान में झुंझुनूं जिले के हैं और वे मरहूम खेमचंद्र प्रकाश के सबसे प्रिय शिष्‍यों में थे। जयपुर से आकाशवाणी से संगीत कंपोजर की नौकरी छोड़कर मुंबई गये थे और वहां संघर्ष के बाद उन्‍होंने जिस पहली फिल्‍म में संगीत दिया था, वह थी, माय लव। शशि कपूर इसमें हीरो थे। गाने आनंद बख्‍शी के थे। फिल्‍म के दो गाने आज भी उतने ही हिट हैं। पहला, ‘जिक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात होती है, तू जो चाहे तो दिन निकलता है तू जो चाहे तो रात होती है’ और दूसरा ‘वो तेरे प्‍यार का गम, इक बहाना था सनम, अपनी किस्‍मत ही कुछ ऐसी थी कि दिल टूट गया।’

‘भूल ना जाना’ फिल्‍म में भी उनका जबरदस्‍त संगीत था, जिसमें हरिराम आचार्य और गुलजार साब के गाने थे। गुलजार साब के ‘पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो, मुझे तुमसे अपनी खबर मिल रही है’ का संगीत दान सिंह ने दिया था। यह फिल्‍म रिलीज नहीं हो पायी थी। बहुत से मित्र आज भी यह मानते हैं, दान सिंह जितने प्रतिभाशाली हैं, उनका दोहन इंडस्‍ट्री ने ठीक से नहीं किया।

कोई एक दशक पहले प्रेस क्‍लब की शामों में अक्‍सर तलवार साब इन गानों के वे अंतरे सुनाया करते थे, जो अब कहीं एलपी रिकॉर्ड या उनके संगीत एलबम में नहीं हैं। मैंने खुद जब पहली बार दान सिंह जी को एक कार्यक्रम में देखा था, वे काफी बुजुर्ग, थके हुए और बीमार लग रहे थे। यह कोई पांच-छह साल पुरानी बात है। इससे पहले बवंडर में जगमोहन मूंदड़ा ने विशेष आग्रह पर उनसे संगीत तैयार कराया था लेकिन उस समारोह में बार-बार कई आग्रहों के बाद दान सिंह ने खुद अपने मुंह से ‘वो तेरे प्‍यार का गम’ सुनाया तो मैं अभिभूत था, उन्‍होंने वे अंतरे भी सुनाये जो अब रिकॉर्ड में नहीं हैं।

मेरी जानकारी में था कि वे इन दिनों दुष्‍यंत की गजलों को संगीतबद्ध करने का काम कर रहे थे। एकदम स्‍वांत: सुखाय। मेरे दिमाग में आया कि क्‍यों न दान सिंह जी से हमारी फिल्‍म के एक गाने का संगीत तैयार कराया जाए। लेकिन समस्‍या यह थी कि कई स्‍थानीय फिल्‍मवाले और कैसेट सीडी वाले लगातार उनसे आग्रह करते रहे कि उनके लिए काम करें और वे लगातार सबको मना करते रहे हैं। वे आजकल काम कर भी नहीं रहे हैं। एक रचनात्‍मक बुजुर्ग को लेकर वैसे भी डर लगता है कि वे आपकी बातों को किस तरह से लेंगे। हम तो राजस्‍थान में एक नये किस्‍म के सिनेमा को लेकर जुनूनी थे लेकिन क्‍या वे हमारी इस गंभीरता को भी दूसरे लोगों की ही तरह लेंगे और हमें भगा देंगे।

मैंने सबसे पहले अपना विचार गजेंद्र से शेयर किया कि क्‍या ऐसा मुमकिन है कि हम आग्रह करें। गजेंद्र खुशी से उछल पड़े। बोले, कैसे भी करके यह काम कराओ। हम खुद उनसे अपनी भावना कहेंगे और उनसे निवेदन करेंगे, लेकिन एक गाने में तो उनका संगीत चाहिए ही।

हमारे पास एक सूत्र ईशमधु तलवार ही थे, जो उन तक पहुंचा सकते थे और उनकी बात पर दान सिंह जी हम पर भरोसा कर सकते थे। तलवार जी ने कहा – मैं बात करके पूछ लेता हूं, अगर उन्‍होंने मना कर दिया तो मैं दबाव नहीं डालूंगा क्‍योंकि कई बार स्‍थानीय कैसेट कंपनियों वालों के लिए भी मैंने उन्‍हें कहा तो उन्‍होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि इन लोगों ने लोक संगीत का सत्‍यानाश किया है, मैं इनके साथ नहीं काम करना चाहता।

लेकिन जब हमारी बात उन तक पहुंची, तो उन्‍होंने शाम को ही मिलने का समय दिया। मैं तनाव में था। मेरे लिखे गानों में से कोई पहली बार किसी ऐसे मास्‍टर के हाथ में जा रहा था जो मीटर, लय, छंद जैसे मुहावरों को देखते ही पहचानता हो। मैं उतना ही डरा हुआ था जितना स्‍कूल के दिनों में डरता था, जब मेरे होमवर्क की कॉपी टीचर के हाथ में होती थी। मैंने साहित्‍य में पढ़े अपने छंद ज्ञान के आधार पर गाने को और दुरुस्‍त किया और गाने के दो प्रिंट लेकर मैं गजेंद्र और तलवार जी के साथ उनसे मिलने घर पहुंचे।

स्‍टेशन रोड स्थित एक चौड़ी सी गली में उनका घर है, जो बना हुआ पुरानी शैली में है लेकिन इतनी लंबी चौड़ी और खुली खुली जगह है कि मजा आया। वे उतनी ही गर्मजोशी से हमसे मिले। परिचय के बाद तलवार जी ने कहा, ये दोनों मेरे छोटे भाई की तरह हैं। अच्‍छी फिल्‍म बना रहे हैं। हम चाहते हैं, फिल्‍म में संगीत दें आप। वे बोले, ‘आप के भाई हैं तो अच्‍छी फिल्‍म ही बनाएंगे और मैं संगीत दूंगा।’

‘लेकिन एक समस्‍या है’ तलवार जी ने कहा, ‘इनके पास बजट नहीं है, खुद ही पैसा जुटाकर काम कर रहे हैं।’

‘न तो मुझे पैसे की दरकार है और न ही मैं आपसे पैसा लूंगा।’ दान सिंह जी ने तुरंत उसी गर्मजोशी से कहा, ‘लाइए, गाना दीजिए और सिचुएशन बताइए।’

और यकीन मानिए मेरे हाथ कांप रहे थे, जब मैंने मेरा पहला गाना संगीतबद्ध होने के लिए उनकी तरफ बढ़ाया। उनकी डांट का डर था, उत्तेजना थी और पता नहीं अंदर ही अंदर एक रचनात्‍मक ऊर्जा मुझे पुख्‍ता कर रही थी, क्‍योंकि मैं जानता था कि हमारे लिए, हमारी फिल्‍म के लिए वह सब कुछ अविस्‍मरणीय रहने वाला क्षण था, जब हम सोफे पर बैठे थे और दानसिंह जी ने ड्राइंग रूम में लगे डबल बैड पर तकिये से सहारा हटाकर मेरी तरफ अपना हाथ बढाया था और कहा था कि ‘लाइए, गाना दीजिए।’

और तब मेरी आंखें नम थीं, जब उन्‍होंने कहा, ‘गाना तो ठीक लिख कर लाये हो रामजी।’

अगले ही दिन उसी वक्‍त हम तीनों फिर उसी कमरे में बैठे थे। सुबह ही उनका फोन आ गया था कि कंपोजिशन तैयार है और तुरंत सुनने आ जाइए। समय तय हुआ और उन्‍होंने एक तबलावादक को भी बुला लिया था। उन्‍होंने दो कंपोजिशन गाकर सुनाये और गजेंद्र की राय मांगी, गजेंद्र ने पहली को ओके किया। मैंने देखा वे अपने निर्देशक के प्रति उतने ही विनम्र थे। गजेंद्र उम्र में उनसे आधे हैं लेकिन दान सिंह जी ने उनसे कहा, आप रिजेक्‍ट कर सकते हैं, मुझे बुरा नहीं लगेगा क्‍योंकि फिल्‍म के कप्‍तान आप हैं, हम तो सवारियां हैं।

हम जितना उनसे डर रहे थे, वे उतने ही सहज निकले। स्‍कूल में पढ़ी संस्‍कृत की वे पंक्तियां मुझे स्‍मरण हो आयीं कि प्रतिभा और ज्ञानवान आदमी हमेशा विनम्र हो जाता है, जैसे फलों से लदा पेड़ हमेशा झुका रहता है। जो गाना तैयार हुआ,
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hi
i have his last interview soon u/l here
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